Wednesday 16 September 2015

अपने

बेबात ही अपनों से लड़ते रहे
अनजानी बातों पर खफा होते रहे
दर्द तो खुशियों का ही एक हिस्सा था
हम ना जाने क्यों दर्द को सीने से लगाकर घूमते रहे ।

अपनों की दी हुई तकलीफो से गुज़र कर देखा
तो पता चला की बेबुनियादी तकलीफो से गुज़र रहे थे ।
तकलीफे तो परायो ने भी दी
फर्क बस इतना था की उन तकलीफो से गुज़र कर भी दर्द ना हुआ
और अपनों की दी हुई तकलीफो का जख्म आखिरी सांस तक रहा ।।

पर अपने तो अपने होते है
ना जाने क्यों इतना हक़ हम उन्हें दे देते है
दिल तोड़ने का हक़,
दिल दुखाने का हक़,
रुलाने का हक़,
खुद से दूर करने का हक़,
शायद इसलिए क्योंकि हम उनसे प्यार करते है
और जानते है की वो दर्द का साया भी करीब नही आने देगे ।।

हमारी तकदीर का  फैसला तो वो ले लेते है
पर भूल जाते है की खुद की तकदीर का फैसला भी खुद ही लिया था
फिर क्यों उम्मीद लगाते है की उनके इस फैसले से हम खुश रह पायगे ।।

तकदीर की रेखाएं भले ही अच्छी हो
पर इनके रस्ते बड़े ही अजीब है
खुशियाँ पाने के लिए दुखो के पहाड़ो से गुज़रना पड़ता है।
वो खुशियाँ जो पल भर की मेहमान होती है
या यूं कहु वो खुशिया जिन्हें पाने के लिए आग में चलना पड़ता हैं ।।